श्वास-प्रश्वास और हरिनाम का महत्व | आत्माराम की प्राप्ति

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कवीर आखड़िया झाँई परी, पंथ निहारि-निहारि।
जिभ्या में छाला परा, राम पुकारि-पुकारि ॥

र्थात् बाट जोहते जोहते आँखें धुंधली हो गई हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं दिखाई देता उसी प्रकार उच्चस्वरसे राम राम पुकारते पुकारते जीभ में छाले पड़ गए। चिल्लाकर संकीर्तन करने या बाहर खोजने पर आत्माराम की प्राप्ति नहीं हो सकती।

यह श्वास-प्रश्वास ही जीव की आयु है। श्वास ही जिन की पूंजी है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी पूंजी नहीं है, केवल श्वास ही भरोसा है, वह भी तो क्षण भर के लिए स्थिर नहीं रहता, एकबार जा रहा है, फिर आ रहा है। अतः ऐसी स्थिति में सदा आत्माराम में निमग्न रहना सबके लिए उचित है। देह का भरोसा ही कहाँ, पलभर में जो नाश हो जाए। इसकी रक्षा के लिए प्रत्येक श्वास के साथ अन्तर्मुखी रुप से स्मरण करना ही एकमात्र उपाय है, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

अर्थात् कलियुग में हरिनाम ही सार है। यह जब शास्त्र का कथन है तब भूल होना संभव नहीं। यहाँ "केवल" का अर्थ एकमात्र या सर्वदा नहीं है। "हरेर्नाम हरेर्नाम केवलमेव हरेर्नाम" अर्थात् "केवल ही" है हरि का नाम । 'केवल' एक कर्म का नाम है और इस "केवल कर्म" के द्वारा कैवल्यावस्था प्राप्त की जा सकती है।

-पुराण पुरुष योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिरी महाशय ।